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धर्म धारणा की व्यवहारिकता
शान्ति के साधारण समय में सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र मालखाने में जमा रहते हैं; पर जब युद्ध सिर पर आ जाता है, तो उन्हें निकाल कर दुरुस्त एवं प्रयुक्त किया जाता है। तलवारों पर नये सिरे से धार धरी जाती है। घर के जेवर आमतौर से तिजोरी में रख दिये जाते हैं; पर जब उत्सव जैसे समय आता है, उन्हें निकालकर इस प्रकार चमका दिया जाता है, मानो नये बनकर आये हों। वर्तमान युगसंधि काल में अस्त्रों-आभूषणों की तरह प्रतिभाशालियों को प्रयुक्त किया जायेगा। व्यक्तियों को प्रखर प्रतिभा सम्पन्न करने के लिए यह आपत्तिकाल जैसा समय है। इस समय उनकी टूट-फूट को तत्परतापूर्वक सुधारा और सही किया जाना चाहिए।
अपनी निज की समर्थता, दक्षता, प्रामाणिकता और प्रभाव-प्रखरता एक मात्र इसी आधार पर निखरती है कि चिंतन, चरित्र और व्यवहार में...
जीवन का अर्थ
जीवन का अर्थ है- सक्रियता, उल्लास, प्रफुल्लता। निराशा का परिणाम होता है- निष्क्रियता, हताशा, भय, उद्विग्रता और अशांति। जीवन है प्रवाह, निराशा है सडऩ। जीवन का पुष्प आशा की उष्ण किरणों के स्पर्श से खिलता है, निराशा का तुषार उसे कुम्हलाने को बाध्य करता है। निराशा एक भ्रांति के अतिरिक्त और कुछ नहीं।
आज तक ऐसा कोई व्यक्ति पैदा नहीं हुआ, जिसके जीवन में विपत्तियाँ और विफलताएँ न आयी हों। संसार चक्र किसी एक व्यक्ति की इच्छा के संकेतों पर गतिशील नहीं है। वह अपनी चाल से चलता है। इसके अलग-अलग धागों के बीच व्यक्तियों का अपना एक निजी संसार होता है। चक्र-गति के साथ आरोह-अवरोह अनिवार्य है, अवश्यंभावी है। उस समय सम्मुख उपस्थित परिस्थितियों का निदान-उपचार भी आवश्यक है, पर उसके कारण कुंठित हो जाना, व्यक्ति...
निराशा हर स्थिति से हटे
अनाचार अपनाने पर प्रत्यक्ष व्यवस्था में तो अवरोध खड़ा होता ही है, साथ ही यह भी प्रतीत होता है कि नियतिक्रम के निरंतर उल्लंघन से प्रकृति का अदृश्य वातावरण भी इन दिनों कम दूषित नहीं हो रहा है। भूकम्प, तूफान, बाढ़, विद्रोह, अपराध, महामारियाँ आदि इस तेजी से बढ़ रहे हैं कि इन पर नियंत्रण पा सकना कैसे संभव होगा, यह समझ में नहीं आता। किंकत्र्तव्य विमूढ़ स्थिति में पहुँचा हुआ हतप्रभ व्यक्ति क्रमश: अधिक निराश ही होता है। विशेषतया तब जब प्रगति के नाम पर विभिन्न क्षेत्रों में किए गये प्रयास खोखले लगते हों, महत्त्वपूर्ण सुधार हो सकने की संभावना से विश्वास क्रमश: उठता जाता हो।
इतना साहस और पराक्रम तो विरलों में ही होता है, जो आँधी, तूफानों के बीच भी अपनी आशा का दीपक जलाए रह सकें। सृजन प्रयोजनों के लि...
मौन साधना के सिद्ध साधक- महर्षि रमण
मदुरै जिले के तिरुचुपि नामक एक देहान्त में उत्पन्न वैंकट रमण अपनी ही साधना से इस युग के महर्षि बन गये। आत्मज्ञान उन्होंने अपनी ही साधना से उपलब्ध किया। अठारह वर्ष की आयु में उनने अपना विद्यार्थी जीवन पूर्ण कर लिया। दक्षिण भारत में बोली जाने वाली चारों भाषाओं का उन्हें अच्छा ज्ञान था। साथ ही अंग्रेजी और संस्कृत का भी। यह भाषा ज्ञान उन्होंने किशोरावस्था में ही प्राप्त कर लिया था। अब आत्म-ज्ञान की बारी थी, जिसके लिए उनकी आत्मा निरन्तर बेचैन थी।
एक दिन जीवन और मृत्यु का मध्यवर्ती अन्तर समझने के लिए उन्होंने अपने मकान की छत पर ही एकाकी अभ्यास किया। शरीर को सर्वथा ढीला करके अनुभव करले लगे कि उनके प्राण निकल गये, काया सर्वथा निर्जीव पड़ी है। प्राण अलग है। प्राण के द्वारा शरीर की उलट-पलट कर देखने ...
व्यक्तित्व को सुसंस्कृत बनायें
मनुष्य एक अबोध शिशु के रूप में इस पृथ्वी पर जन्म लेता है। तब न उसमें भला-बुरा सोचने की क्षमता होती है और न किसी तथ्य को समझाने, परिस्थितियों से लाभ उठाने या अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने की शक्ति। मनुष्य की जीवन यात्रा किसी पाठशाला में भर्ती कराए गए छोटे से बालक की तरह आरम्भ होती है। उस समय उसे जो कुछ सिखा व समझा दिया जाय तदनुरूप वह आगे बढ़ता रहता है। उस समय व्यक्तित्व की आधार शिला रखने का उत्तरदायित्त्व अभिभावकों का है। परन्तु जब कुछ सोचने समझने लायक स्थिति हो जाती है और व्यक्ति अपना भला-बुरा देखने लगता है तब अपना व्यक्तित्व इस प्रकार गढऩा आरम्भ कर देना चाहिए जिससे कि जीवन समर में सफलता प्राप्त की जा सके। व्यक्ति का निजी जीवन सुसंस्कृृत बनाना जीवन साधना का एक अंग है तथा समाज के प्...
ईश्वर के अनुग्रह का सदुपयोग किया जाय
मनुष्य को सोचने और करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। उसका उपयोग भली या बुरी, सही या गलत किसी भी दिशा में वह स्वेच्छापूर्वक कर सकता है। भव बंधन में बँधना भी उसका स्वतन्त्र कर्तृत्व ही है। इसमें माया, प्रारब्ध, शैतान, ग्रह, नक्षत्र आदि किसी अन्य का कोई दोष या हस्तक्षेप नहीं है। जीवन के स्वरूप और उद्देश्य से अपरिचित व्यक्ति भौतिक लालसाओं और लिप्साओं में स्वतः आबद्ध होता है। वह चाहे तो अपनी मान्यता और दिशा बदल भी सकता है और जिस तरह बंधनों को अपने इर्द गिर्द लपेटा था उसी प्रकार उनसे मुक्त भी हो सकता है।
रेशम का कीड़ा अपना खोल आप बुनता है और उसी में बँधकर रह जाता है। मकड़ी को बंधन में बाँधने वाला जाल उसका अपना ही तना हुआ होता है। इसे उनकी प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया ही कह सकते हैं। जब रेशम का कीड़ा ख...
सुखद और सरल सत्य ही है
नि:संदेह सत्य का मार्ग उतना कठिन नहीं है। जितना दीखता है। जो वस्तु व्यवहार में नहीं आती, जिससे हम दूर रहते हैं, वह अजनबी, विचित्र तथा कष्टïसाध्य लगती है, पर जब वह समीप आती है, तो वह स्वाभाविक एवं सरल बन जाती है। चूँकि हमारे जीवन में झूठ बोलने की आदत ने गहराई तक अपनी जड़ जमा ली है। बात-बात में झूठ बोलते हैं। बच्चों की हँसी-जिन्दगी में, शेखी बघारने के लिए, लोगों को आश्चर्य में डालने के लिए अक्सर अतिरंजित बात कही जाती है। इनसे कुछ विशेष लाभ होता हो, या कोई महत्त्वपूर्ण स्वार्थ सधता हो, सो बात भी नहीं है, पर यह सब आदत में सम्मिलित हो गया है, इसलिए अनजाने ही हमारे मुँह से झूठ निकलता रहता है।
वेदों में स्थान-स्थान पर सत्य की महत्ता को समझाया गया है और सत्यवादी तथा सत्यनिष्ठï बनने के लिए प्रेरण...
विचार एक मजबूत ताकत
शुभ सात्विक और आशापूर्ण विचार एक वस्तु है। यह एक ऐसा किला है, जिसमें मनुष्य हर प्रकार के आवेगों और आघातों से सुरक्षित रह सकता है। लेकिन मनुष्य को उत्तम विचार ही रखने और अपनी आदत में डालने अभ्यास निरंतर करना चाहिए। विचार फालतू बात नहीं है। यह एक मजबूत ताकत है। इसका स्पष्ट स्वरूप है। उसमें जीवन है। यह स्वयं ही हमारा मानसिक जीवन है। यह सत्य है। विचार ही मनुष्य का आदिरूप है। पानी में लकड़ी, पत्थर, गोली आदि फेंकने से जैसा आघात होता है, जैसा रूप बनता है, जो प्रभाव होता है, वैसा ही तथा उससे भी अधिक तेज आघात विचारों को फेंकने से होता है।
मनुष्य के सृजनात्मक विचारों में नव-रचना करने की अदभुद शक्ति है। मनुष्य के जिस रंग, रूप, गुण, कर्म, संस्कार के विचार होते हैं, उसी दिशा में उसकी तीव्र उन्नति होती ...
अपने ऊपर भरोसा करो!
यदि आप चाहते हैं कि दूसरे लोग आपके ऊपर भरोसा करें तो इसका सबसे सुलभ और सुनिश्चित उपाय यह है कि आप अपने ऊपर भरोसा करें। दुनिया में ऐसे अनेक मनुष्य हैं जिन पर कोई भरोसा नहीं करता, उन्हें गैर जिम्मेदार और बेपैंदी का समझा जाता है तथा जगह जगह दुत्कारा जाता है। ऐसे मनुष्य अपने आपे के प्रति अविश्वासी होते हैं। उनके चेहरे से, भावभंगिमा से, वाणी से, यह स्पष्ट रूप से प्रकट होता रहता है कि वह अपने आपके ऊपर भरोसा नहीं करता।
बाहर के मनुष्य हमें उसी नाम से पुकारते हैं कि जो हम अपना नाम उनके सामने प्रकट करते हैं। जब हमारी भावभंगिमा और वाणी से दीनता तुच्छता, असमर्थता, निराशा, निर्बलता, असमर्थता प्रकट होती है तो तुरन्त ही दूसरे लोग भी हमें वैसे ही मान लेते हैं और तदनुसार ही हमारे साथ व्यवहार करते हैं। जो ल...
मांस मनुष्यता को त्याग कर ही खाया जा सकता है
करुणा की प्रवृत्ति अविछिन्न है। उसे मनुष्य और पशुओं के बीच विभाजित नहीं किया जा सकता। पशु-पक्षियों के प्रति बरती जाने वाली निर्दयता मनुष्यों के साथ किये जाने वाले व्यवहार को भी प्रभावित करेगी। जो मनुष्यों से प्रेम और सद्व्यवहार का मर्म समझता है वह पशु-पक्षियों के प्रति निर्दय नहीं हो सकता। भारत यात्रा करने वाले सुप्रसिद्ध फाह्यान, मार्कोपोलो सरीखे विदेशी यात्रियों ने अपनी भारत यात्राओं के विशद् वर्णनों में यही लिखा है - भारत में चाण्डालों के अतिरिक्त और कोई सभ्य व्यक्ति माँस नहीं खाता था। धार्मिक दृष्टि से तो इसे सदा निन्दनीय पाप कर्म बताया जाता रहा है।
बौद्ध और जैन धर्म तो प्रधानतया अहिंसा पर ही आधारित है। वैष्णव धर्म भी इस सम्बन्ध में इतना ही सतर्क है । वेद, पुराण, स्मृति, सूत्र आदि हिन्...